Parmar Rajput History : परमार (पँवार) राजपूत क्षत्रिय परंपरा मे अग्निवंशी राजपूत माने जाते है | परमार राजपूतो ने मध्य भारत मे 8 से 14 वी शताब्दी के बीच शाशन किया है | परमार राजपूतो की उत्पत्ति यज्ञ से हुई थी | परमार पर+मार अर्थात शत्रु का नाश करने वाले | परमार राजवंश के संस्थापक उपेन्द्रराज थे। परमार राजवंश की प्राचीन राजधानी उज्जैन थी बाद में राजधानी परिवर्तित कर धार नगर कर दी गई थी जो मध्य प्रदेश में स्थित है। इस राजवंश के आरंभिक शासक संभवतः मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ सामंत के रूप में शासन करते थे।
10 वीं शताब्दी के परमार शासक सीयक के सबसे पुराने परमार शिलालेख गुजरात में पाये गये हैं। सीयक ने लगभग 972 ई. में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर अधिकार कर लिया, और परमारों को एक संप्रभु शक्ति के रूप में स्थापित किया।
सीयक के उत्तराधिकारी मुंज के समय तक वर्तमान मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र मुख्य परमार क्षेत्र बन गया था, जिसकी राजधानी धारा (अब धार) थी। मुंज के भतीजे भोज के शासनकाल में इस राजवंश का चरमोत्कर्ष हुआ और परमार राज्य उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से लेकर पूर्व में उड़ीसा तक फैल गया।
बाद के परमार शासकों ने अपनी राजधानी को मंडप-दुर्गा (मांडू) में स्थानांतरित किया। अंतिम ज्ञात परमार नरेश महालकदेव दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में पराजित हुआ और मारा गया। किंतु अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि महालकदेव की मृत्यु के बाद भी कुछ वर्षों तक परमारों का शासन चलता रहा।
परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर 10वीं शताब्दी के अंत से 13वीं शताब्दी के अंत तक शासन करती रही। इस वंश की एक दूसरी शाखा ने वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर में 10 वीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर 12 वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया। इसके अलावा, परमार वंश (Parmar Rajput) की दो शाखाओं ने जालोर और भीनमाल में भी 10वीं शताब्दी के अंतिम चरण से 12वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक राज्य किया था।
परमार राजवंश के ऐतिहासिक स्त्रोत (Parmar Dynasty)
परमार वंश के इतिहास-निर्माण में अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है। अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण सीयक द्वितीय का हरसोल अभिलेख (948 ई.) है जिससे परमार वंश के प्रारंभिक इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। अन्य लेखों में वाक्पति मुंज के उज्जैन अभिलेख (980 ई.), भोज के बाँसवाड़ा तथा बेतमा के अभिलेख, उदयादित्य के काल की उदयपुर प्रशस्ति, लक्ष्मदेव की नागपुर प्रशस्ति भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इनमें उदयपुर प्रशस्ति विशेष महत्वपूर्ण है, जो भिलसा के समीप उदयपुर के नीलकंठेश्वर मंदिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण है। उदयपुर प्रशस्ति में परमार वंश के शासकों के नाम और उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।
परमार वंश के इतिहास का ज्ञान विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों से भी होता है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- पद्मगुप्त परिमल द्वारा विरचित नवसाहसांकचरित। पद्मगुप्त परमार नरेश भोज और सिंधुराज का आश्रित कवि था। यद्यपि इस ग्रंथ में पद्मगुप्त ने मुख्यतः अपने आश्रयदाता राजाओं के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का ही वर्णन किया है, फिर भी, इससे परमार वंश के इतिहास से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है। जैन लेखक मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि से भी परमार वंश के इतिहास, विशेषकर गुजरात के चौलुक्य शासकों के साथ उनके संबंधों की जानकारी मिलती है।
वाक्पतिमुंज तथा भोज स्वयं विद्वान् और विद्वानों के संरक्षक थे। उसके शासनकाल में लिखे गये अनेक ग्रंथों से भी तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के संबंध में सूचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त, मुसलमान लेखकों में अबुलफजल की ‘आइने-अकबरी’, अल्बरूनी तथा फरिश्ता के विवरण भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। मुसलमान लेखकों ने परमार शासक भोज की शक्ति एवं विद्वता की बड़ी प्रशंसा की है।
परमार राजपूतो की उत्पत्ति (Parmar Rajput)
परमार राजपूतो की उत्पत्ति के संबंध मे अलग अलग इतिहासकारो के अलग अलग मत है | राजा मुंज के दरबार कवि पदमगुप्त द्वारा लिखे गए नवसाहसांक चरित के अनुसार परमार राजपूतो की उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई थी | इसके अनुसार आबू पर्वत पर वशिष्ठ ऋषि रहते थे उनकी गाय नंदिनी का विश्वामित्र ने छल से अपहरण कर लिया था। इस पर वशिष्ठ ऋषि ने क्रोध में आकर अग्नि कुंड में आहुति दी जिससे एक वीर पुरुष उत्पन्न हुआ जो शत्रुओं को पराजित कर गौ माता को वापस ले आए उसी वीर पुरुष के वंशज से बाद में परमार वंश/पंवार वंश की उत्पत्ति हुई। इसी बात का वर्णन डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा राजस्थान में “परमार चामुंड राज” द्वारा बनाए गए महादेव मंदिर में मिले शिलालेख भी करते हैं।
इन शिलालेखों के अनुसार भी गुरु वशिष्ठ की गाय को ले जाने पर गुरु वशिष्ठ की अग्नि कुंड में आहुति के बाद उत्पन्न हुए दिव्य पुरुष ने ही परमार वंश (Parmar Rajput) की स्थापना की थी। इन सभी बातों का उल्लेख पृथ्वीराज रासो में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त भविष्य पुराण के कुछ श्लोकों से भी यह पता चलता है कि सम्राट अशोक के समय में आबू पर्वत पर ब्राह्मणों ने यहां यज्ञ करके चार क्षत्रिय वीर पुरुष उत्पन्न किए थे जो कि परमार, चौहान, चालुक्य तथा प्रतिहार थे।
कुछ इतिहासकाकरों का मानना है कि परमार राष्ट्रकूटों के वंशज थे। इनके अनुसार परमार नरेश सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) में अकालवर्ष नामक एक शासक का उल्लेख है, जिसके लिए ‘तस्मिन कुले’ (उस परिवार में) शब्द का प्रयोग किया है और उसके बाद वप्पैराजा (वाक्पति) का नाम आया है। अकालवर्ष की उपाधि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय की थी। सीयक के उत्तराधिकारी वाक्पति मुंज की अमोघवर्ष, श्रीवल्लभ और पृथ्वीवल्लभ जैसी उपाधियाँ उसे राष्ट्रकूटों से संबंधित करती हैं। सीयक ने लगभग 972 ई. में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर अधिकार कर लिया, और परमारों को एक संप्रभु शक्ति के रूप में स्थापित किया।
परमार राजपूतो द्वारा शाशित राज्य
परमार राजपूतो से मुख्यत मध्य भारत पर शाशन किया था | इनका शाशन काल मुख्यत 800 से 1327 ई. मे था | जिसमे आबु, जालोर, मालवा, बागड़, किराडु मुख्य जगह है | कुछ विद्वानों का अनुमान है कि परमारों का मूल स्थान माउंट आबू था।
इसके आलावा दांता (गुजरात), पीसांगन (अजमेर), मध्यप्रदेश में स्थित देवास और धार क्षेत्र, टेहरी गढ़वाल और पौडी गढ़वाल, जगदीशपुर और डमरांव (बिहार), राजगढ़ और नरसिंहगढ़ (मध्य प्रदेश), छतरपुर राज्य, अमरकोट (सिंध, पाकिस्तान), पारकर राज्य, जगमेर राज्य आदि क्षेत्र परमारों का शाशन क्षेत्र था |
परमार राजवंश की कुलदेवी (Parmar Rajput Kuldevi)
परमार या पंवार वंश की कुलदेवी श्री सचियाय माता है। सच्चियाय माता का भव्य मंदिर जोधपुर से लगभग 60 कि. मी. की दूरी पर ओसियां में स्थित है इसी लिये इनको ओसियां माता भी कहा जाता है , ओसियां पुरातत्विक महत्व का एक प्राचीन नगर है , ओसियां शहर कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र होने के साथ ही धार्मिक महत्व का क्षेत्र रहा है |
ओसियां के पहाडी पर अवस्थित मंदिर परिसर में सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्द सच्चियाय माता का मंदिर 12 वीं शताब्दी के आसपास बना यह भव्य और विशाल मंदिर महिषमर्दिनी ( दुर्गा) को समर्पित है ।
उपलब्ध साक्ष्यो से पता चलता है कि उस युग में जैन धर्मावलम्बी भी देवी चण्डिका अथवा महिषमर्दिनी की पूजा – अर्चना करने लगे थे, तथा उन्होने उसे प्रतिरक्षक देवी के रूप में स्वीकार किया था , परंतु उन्होने देवी के उग्र रूप या हिंसक के बजाय उसके ललित एवं शांत स्वरूप की पूजा अर्चना की , अत: उन्होने माँ चामुण्डा देवी के वजाय सच्चियाय माता ( सच्चिका माता ) नाम दिया था , सच्चियाय माता श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के ओसवाल समाज के साथ परमारों ( पंवारो ) (Parmar Rajput) सांखला , सोढा राजपूतो की ईष्टदेवी या कुलदेवी है ।
परमार वंश की प्रमुख शाखाये
सोढा परमार, जैतमल, भोजराज, वराह, लोदरवा परमार, बूंटा परमार, चन्ना परमार, मोरी परमार, सुमरा परमार, उमट परमार, बीहल परमार, डोडिया परमार, नबा, देवा, बजरंग, उदा, महराण, सादुल, अखैराज, सूरा, मधा, धोधा, तेजमालोट, करमिया, विजैराण, नरसिंह, सुरताण, नरपाल,गंगदास, आसरवा, जोधा, भायल, भाभा, हुण, सावंत, बारड, सुजान, कुंतल, बलिला, गुंगा, गहलड़ा, सिंधल, नांगल।
परमार वंश के प्रमुख शाशक
उपेंद्र अथवा कृष्णराज (800-818 ई.)
परमार वंश का संस्थापक उपेंद्र अथवा कृष्णराज (800-818 ई.) था। धारा नगरी परमार वंश की राजधानी थी। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि 808-812 ई. के बीच राष्ट्रकूटों ने मालवा क्षेत्र से गुर्जर-प्रतिहारों को निष्कासित कर दिया था और मालवा का लाट क्षेत्र राष्ट्रकूट राजा गोविंदा तृतीय के अधीन था। गोविंद के पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के 871 ई. के संजन ताम्रपत्रलेख में कहा गया है कि उसके पिता ने मालवा में एक सामंत नियुक्त किया था। संभवतः यह अधीनस्थ सामंत परमार राजा उपेंद्र था।
उदयपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उपेंद्र के बाद कई छोटे-छोटे शासक हुए, जैसे- वैरीसिम्हा प्रथम (818-843 ई.), सीयक प्रथम (843-893 ई.), वाक्पति प्रथम (893-918 ई.) और वैरीसिम्हा द्वितीय (918-948 ई.)।
हर्ष अथवा सीयक द्वितीय (948-974 ई.)
परमार वंश का पहला ज्ञात स्वतंत्र शासक सीयक द्वितीय है, जो वैरीसिम्हा द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) से पता चलता है कि वह राष्ट्रकूटों का अधीनस्थ सामंत था। किंतु उसी शिलालेख में सीयक के लिए ‘महाराजाधिराजपति’ की उपाधि का प्रयोग किया गया है। इससे अनुमान किया जाता है कि सीयक की अधीनता नाममात्र की थी।
सीयक को सबसे महत्वपूर्ण सफलता राष्ट्रकूटों के विरुद्ध मिली। कृष्णा तृतीय की मृत्यु के बाद सीयक ने 972 ई. में नर्मदा नदी के तट पर राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग को पराजित किया और राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट तक उसका पीछा किया। राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीयक का एक सेनापति भी मारा गया। राष्ट्रकूट विजय के संबंध में उदयपुर प्रशस्ति में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है कि सीयक ने ‘भयंकरता में गरुड़ की तुलना करते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को युद्ध में छीन लिया’। इस प्रकार सीयक ने राष्ट्रकूटों की अधीनता का जुआ उतार फेका और परमारों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
इस प्रकार सीयक की विजय से अंततः राष्ट्रकूटों का पतन हो गया और मालवा में एक स्वतंत्र संप्रभु शक्ति के रूप में परमार शासन की स्थापना हुई जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालवर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था।
वाक्पति मुंज (974-995 ई.)
सीयक के दो पुत्र थे- मुंज तथा सिंधुराज। इनमें मुंज उसका दत्तक पुत्र था, लेकिन सीयक की मृत्यु के बाद वही परमार वंश की गद्दी पर बैठा। इतिहास में उसे वाक्पति मुंज तथा उत्पलराज के नाम से भी जाना जाता है। वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक था। राज्यारोहण के पश्चात् उसने परमार राज्य के विस्तार के लिए अनेक युद्ध किये।
परमार नरेश वाक्पति मुंज का शाकम्भरी और नड्डुल के चाहमानों से भी युद्ध हुआ। उसने नड्डुल के चाहमान शासक बलिराज को हराकर उससे आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिण का भाग छीन लिया।
वाक्पति मुंजराज स्वयं उच्चकोटि का कवि था। वह विद्या और कला का उदार संरक्षक भी था। उसने भारत के विभिन्न हिस्सों से विद्वानों को मालवा में आमंत्रित किया। एक महान् निर्माता के रूप में वाक्पति मुंज ने उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि नगरों में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने अपनी राजधानी में ‘मुंजसागर’ नामक एक झील बनवाया और गुजरात में मुंजपुर नामक नगर बसाया। प्रतिभा बहुमुखी प्रतिभा के धनी मुंजराज ने उत्पलराज, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष जैसी प्रसिद्ध उपाधियाँ धारण की थीं।
सिंधुराज (995-1010 ई.)
वाक्पति मुंज के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिंधुराज परमार वंश का शासक हुआ। उसने कुमारनारायण तथा साहसांक जैसी उपाधियाँ धारण की।
परमार भोज (1010-1055 ई.)
सिंधुराज के पश्चात् उसका पुत्र भोज परमार वंश (Parmar Rajput)का शासक हुआ। भोज की गणना भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में की जाती है, जिसके शासनकाल में परमार राज्य राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। भोज के शासनकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिले हैं, जो 1011 ई. से 1046 ई. तक के हैं।
इतिहासकारों के अनुसार सोमनाथ को आक्रांत करने के बाद महमूद गजनवी ने परमदेव नामक एक हिंदू राजा के साथ संघर्ष से बचने के लिए अपना मार्ग बदल दिया था। कुछ इतिहासकार इस परमदेव की पहचान परमार भोज के रूप में करते हैं। यह भी संभावना व्यक्त की गई है कि परमार भोज ने महमूद गजनवी के विरूद्ध काबुलशाही शासक आनंदपाल की सैनिक सहायता की थी। यही नहीं, कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि भोज उस गठबंधन में भी सम्मिलित था, जिसने 1043 ई. के आसपास हांसी, थानेसर और अन्य क्षेत्रों से महमूद गजनवी के राज्यपालों को निष्कासित किया था।
वह अपने युग का एक पराक्रमी शासक था। उसने अपने समकालीन उत्तर तथा दक्षिण की प्रायः सभी शक्तियों से संघर्ष किया और परमार सत्ता का विस्तार किया। उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर शासन किया। उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़ कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया।’
वास्तव में अपने उत्कर्ष काल में भोज का साम्राज्य उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में ऊपरी कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से पूरब में उड़ीसा तक फैला हुआ था।
भोज स्वयं विद्वान् था और उसने ‘कविराज’ की उपाधि धारण की थी। उसने ज्योतिष, व्याकरण, काव्य, वास्तु, योग आदि विविध विषयों पर ग्रंथों की रचना की। भोज की रचनाओं में सरस्वतीकृष्णभरण, श्रृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, श्रृंगारमंजरी, भोजचंपू, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि महत्वपूर्ण हैं। युक्तिकल्पतरू और समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र के ग्रंथ हैं। उसकी रानी अरून्धती भी एक उच्चकोटि की विदुषी थी।
भोज की राजसभा में भाष्कर भट्ट, दामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान् रहते थे। उसकी उदारता और दानशीलता के संबंध में कहा जाता है कि वह प्रत्येक कवि को उसके प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्राएँ देता था। भोज की मृत्यु संभवतः 1055 ई. में हुई थी।
राजा भोज (Parmar Rajput) एक बहुत ही विद्वान, प्रतापी और शक्तिशाली शासक थे। राजा भोज एक सर्वगुण संपन्न शासक थे जिनके दरबार में कई विद्वान रहते थे। मध्य प्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाने का श्रेय राजा भोज को ही जाता है।
जयसिम्हा या जयसिंह प्रथम (1055-1060 ई.)
भोज की मृत्यु के बाद जयसिम्हा प्रथम 1055 ई. के आसपास परमार वंश की गद्दी पर बैठा, जो संभवतः उसका पुत्र था। जयसिम्हा का उल्लेख केवल 1055-56 ई. के मंधाता ताम्रलेख में मिलता है।
उदयादित्य (1060-1087 ई.)
जयसिंह प्रथम के बाद भोज का भाई उदयादित्य परमार वंश का शासक हुआ। किंतु उदयपुर प्रशस्ति और नागपुर शिलालेख में भोज की मृत्यु के बाद ही उदयादित्य का परमार राजा के रूप में उल्लेख मिलता है।
लक्ष्मदेव या लक्ष्मणदेव (1087-1092 ई.)
उदयादित्य का उत्तराधिकारी उसका बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव हुआ। किंतु कुछ इतिहासकार मानते हैं कि लक्ष्मदेव कभी राजा नहीं बना और उदयादित्य ने लक्ष्मदेव के भाई नरवर्मन् को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, क्योंकि लक्ष्मदेव का नाम जयवर्मन् द्वितीय के 1274 ई. के मंधाता ताम्रलेख में वर्णित परमार राजाओं की सूची में नहीं था और उदयादित्य के उत्तराधिकारी के रूप में नरवर्मन् को सूचीबद्ध किया गया है।
नरवर्मन् (1092-1134 ई.)
लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मन् राजा बना, जिसे नरवर्मादेव के नाम से भी जाना जाता है। नरवर्मन् परमार नरेश उदयादित्य का पुत्र था। उसने ‘निर्वाणनारायण’ की उपाधि धारण की थी।
यशोवर्मन् (1134-1142 ई.)
नरवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मन् हुआ। 1135 ई. के संस्कृत भाषा के उज्जैन अभिलेख में उसका उल्लेख ‘महाराजा यशोवर्मादेव’ के रूप में मिलता है।
जयवर्मन् प्रथम (1142-1155 ई.)
यशोवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जयवर्मन् हुआ, जिसे अर्जुनवर्मन् के पिपलियानगर शिलालेख में ‘अजयवर्मन्’ कहा गया है।
विंध्यवर्मन् (1175-1193 ई.)
लगभग दो दशक बाद संभवतः 1175 के आसपास जयवर्मन् का पुत्र विंध्यवर्मन परमार गद्दी पर बैठा। उसने चालुक्य राजा मूलराज द्वितीय को पराजित कर पूर्वी परमार क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। अर्जुनवर्मन् प्रथम के एक शिलालेख से पता चलता है कि विंध्यवर्मन् ने गुजरात के राजा को हराया था।
सुभटवर्मन् (1193-1210 ई.)
विंध्यवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र सुभटवर्मन् हुआ, जिसे सोहदा के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि इस समय तुर्क आक्रमणों के कारण चालुक्यों की शक्ति क्षीण हो गई थी, जिसका लाभ उठाकर सुभटवर्मन् ने 1204 ईस्वी के आसपास लाट क्षेत्र (दक्षिणी गुजरात) पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया।
अर्जुनवर्मन् प्रथम (1210-1218 ई.)
सुभटवर्मन् के बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् मालवा का राजा हुआ। धार प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अर्जुन ने चौलुक्य जयसिंह को पर्व पर्वत घाटी (संभवतः पावागढ़) में हराया था और उसकी पुत्री जयश्री से विवाह किया था। 14वीं सदी के लेखक मेरुतुंग ने अर्जुनवर्मन् को ‘गुजरात का विध्वंसक’ कहा है। वास्तव में अर्जुन ने जयंतसिम्हा (जयसिंह) को पराजित कर कुछ समय के लिए चौलुक्य (सोलंकी) सिंहासन पर कब्जा कर लिया। अर्जुनवर्मन् को उसके शिलालेखों में प्रसिद्ध पूर्वज राजा भोज का पुनर्जन्म बताया गया है। उसने ‘त्रिविधवीरक्षमनि’ की उपाधि धारण की थी। वह विद्वानों का संरक्षक था, और स्वयं भी विद्वान् तथा कुशल कवि था।
देवपाल (1218-1239)
अर्जुनवर्मन् के बाद देवपाल शासक हुआ, किंतु वह अर्जुनवर्मन् का पुत्र न होकर एक भोपाल क्षेत्र के ‘महाकुमार’ उपाधिधारी परमार शाखा के प्रमुख हरिश्चंद्र का पुत्र था। देवपाल के शासनकाल में भी परमारों का चालुक्यों (सोलंकी) और देवगिरी के यादवों के साथ संघर्ष चलता रहा।
देवपाल का उत्तराधिकारी जैतुगिदेव (1239-1256 ई.) हुआ जिसने ‘बालनारायण’ की उपाधि धारण की।
जैतुगिदेव के उत्तराधिकारी जयवर्मन् या जयसिंह द्वितीय (1256-1274 ई.) को मंधाता ताम्रलेख (1274 ई.) में ‘जयवर्मन्’ या ‘जयसिंह’ आदि कहा गया है। जयवर्मन के कई शिलालेखों में उल्लेख है कि वह मंडप-दुर्गा (वर्तमान मांडू) में रहता था।
जयवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र अर्जुनवर्मन् द्वितीय (1274-1283 ई.) था,
संभवतः अर्जुन द्वितीय के मंत्री गोगादेव ने परमार राजधानी धारा पर अधिकार कर नाममात्र के राजा के रूप में भोज द्वितीय (1283-1295 ई.) को सिंहासनारूढ़ किया था और अर्जुन द्वितीय राज्य के दूसरे हिस्से पर शासन कर रहा था।
भोज द्वितीय का उत्तराधिकारी महालकदेव (1295-1305 ई.) अंतिम ज्ञात परमार राजा है। दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने 1305 ई. में मालवा के परमार क्षेत्र पर आक्रमण किया। किंतु यह निश्चित नहीं है कि मालवा पर दिल्ली की सेना ने कब अधिकार किया, क्योंकि उदयपुर के एक शिलालेख से संकेत मिलता है कि परमार वंश (Parmar Rajput) 1310 ई. तक कम से कम मालवा के उत्तर-पूर्वी भाग में शासन कर रहा था |
परमार राजपूत गोत्र (Parmar Rajput Gotra)
वंश – अग्नि वंश
कुल – परमार
गोत्र – वशिष्ठ
प्रवर – तीन , वशिष्ठ , अत्रि , साकृति
वेद – यजुर्वेद
उपवेद – धनुर्वेद
शाखा – वाजसनयि
प्रथम राजधानी – उज्जैन (मालवा)
कुलदेवी – सच्चियाय माता
ईष्टदेव – माण्डवराव (सूर्य )
महादेव – रणजूर महादेव
गायत्री – ब्रह्मगायत्री
भैरव – गोरा भैरव
तलवार – रणतरे
ढाल – हरियण
निशान – केसरी सिंह
ध्वज – पीला रंग
गढ – आबू
शस्त्र – भाला
गाय – कवली गाय
वृक्ष – कदम्ब, पीपल
नदी – सफरा (शिप्रा)
पक्षी – मयूर
पाधडी – पचरंगी
राजयोगी – भर्तृहरि
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